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एक अनाम चिट्ठी,रेलगाड़ी को याद करते हुए और रेलमंत्री के नाम ।
अशोक कुमार की फिल्म आशीर्वाद का एक गाना है, रेलगाड़ी-रेलगाडी छुक-छुक-छुक-छुक, स्टेशन बोले बोले रूक रूक रूक रूक, अच्छा लगता था । फिल्म 1968 में आई थी जब में 13 साल का था । बचपन की मस्तियों में ये गाना भी होता था और रेल भी । कभी घर में तो कभी स्कूल में दोस्तों के साथ बिना सिग्नल के ये रेलगाड़ी दौड़ा करती थी । उस समय इंसान इतना घुमंतु नहीं था । रतलाम-इंदौर किसी सपने से कम नहीं हुआ करता था । तो परिवहन के समित साधन भी कम थे । मेघनगर रेलवे स्टेशन साल में कभी एक दफा दर्शन हो जाएं , वो भी मामा के यहां जाने के लिए । ट्रेन बैठना बड़ा अच्छा लगता था,छोटी लाईन पर गाड़ी हिचकोले लेकर चली जाती थी । इसके अलावा रेडियो सिलोन पर सुनकर खुश हो लेता था, फिर वक्त के साथ टेलीविजन आया तो रंगोली-चित्रहार के बहाने रेलगाड़ी के दर्शन हो जाया करते थे । कोई रेलगाड़ी का जिक्र छेड़ दे बस, ये बात सुनते ही कुछ महीनों तक तो दोस्तों के बीच चर्चाओं में ट्रेन ही रही । जैसे अमिताभ बच्चन और उनकी तन्हाई बात करती थी वैसे ही मैं और मेरी तन्हाई भी बात करते थे, लेकिन मैं माशूका की जगह रेलगाड़ी की बात करता था, रेल आ जाएगी तो ऐसा होगा, रेल आ जाएगी तो वैसा होगा, वो ऐसे-ऐसे छुक-छुक करेगी, वो वैसे धड़क-धड़क कर भागेगी, और भी ना जाने क्या- क्या । लेकिन ख्याली पुलाव ख्याली ही रहा है, समय गुजरते जा रहा है और इस दौरान सिनेमा ही मेरे लिए रेलगाड़ी को करीब से देखने का जरिया हुआ करता था । तरूणाई की आमद हुई तो राजेश खन्ना रेलगाड़ी को पीछे छोड़ते नजर आने लगे । वो दृश्य देखकर मेरी तरूणाई ने कुछ सोच लिया था, श्रंगार रस से भर दिया । फिर मौका मिला शोले फिल्म के समय , रेलगाड़ी,नायक और डाकू लेकिन दिल अटका तो कमबख्त रेलगाड़ी पर । रेलगाड़ी लेकिन अब भी दूर थी, सोचता था सरकार इतना कुछ कर रही है, झाबुआ कैसे चूक रहा है । वक्त बीत रहा है था और मेरे साथ मेरा रेलगाड़ी का सपना भी बुढ़ा हो रहा था । फिर जिंदगी की आपाधापी में रेलगाड़ी छूट गई । याद आई तो जब बेटे ने एक किसी नई फिल्म का गाना सीडी प्लेयर में बजा दिया । गाना कुछ यूं था, धड़क-धड़क धड़क-धड़क धुंआ उड़ाए रे, धड़क-धड़क मुझे बुलाए रे । गुलजार के इस गीत ने ना रोने दिया ना हंसने दिया । बेटे को हिदायत की फिर कभी ये गाना ना बजाना । उम्र के इस पड़ाव में भी रिटार्यड होने वाला था और मेरा रेलगाड़ी को झाबुआ शहर से गुजरने का सपना भी । पता नहीं कब बुलावा आ जाए । अब तो आस छोड़ चुके थे । बच्चे और उनके बच्चे देख ले । कभी श्राद्ध पक्ष में फोटो दिखादे बस यही उम्मीद रही गई थी । लेकिन एक दिन अचानक पता लगा कि रेल लाईन का उद्घाटन हो रहा है, देश के प्रधानमंत्री आ रहे हैं । मैं गया कुछ तो यादें रेलगाड़ी की ले जाऊं, मंच से 2011 में रेल दिखाने का वादा था, जिंदगी बीमारियों के बहाने धोखा देने की कोशिशों में थी और मैं डॉक्टरों के सहारे रेलगाड़ी आने तक आंखे खुली रखना चाहता था, ताकी खुली आंखों से ये सपना सच होते हुए देख सकूं । लेकिन रेलगाड़ी सियासत बनी, चुनावी दंगल का दांव बनी, लेकिन मेरी हकीकत ना बन सकी । अब वक्त गुजर चुका है, शायद मैं भी । जिंदगी भर रेलगाड़ी-रेलगाड़ी किया लेकिन अशोक कुमार जैसा फेमस ना हो सका जो एक 5 मिनट के गीत के जरिये आज भी रेलगाड़ी को अमर बना गए और खुद भी अमर हो गए ।
हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पर दम निकले
बहुत निकले अरमान मेरे, मगर फिर भी कम निकले.
रेलगाड़ी की आस में मेरा भी दम निकल गया, कभी आ जाए रेलगाड़ी तो इस नाचीज को ना भूलना जिसने बपचन से लेकर बुढ़ापे तक इंतजार किया, इंतजार भी ऐसा की कोई अपने मेहबूब का भी नही करता । हो सके तो ये इंतजार और ये चिट्ठी रेल मंत्री तक पहुंचा देना, ताकि मेरे बाद के लोग रेलगाड़ी का दीदार अपने शहर में कर सकें ।
Categories: झाबुआ
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