का बर्षा जब कृषि सुखाने, जब फसल सूखने को आ चुकी हो तब बारिश का कोई मतलब नहीं? यही हाल है झाबुआ जिला प्रशासन का, जिसे अप्रैल के 22 दिन बीत जाने के बाद याद आया कि निजी स्कूलों में फीस, किताबें और यूनिफॉर्म को लेकर कोई समिति बनानी चाहिए।
अब भला बताइये, जब अधिकांश अभिभावकों ने अपने बच्चों का एडमिशन करवा दिया है, फीस भर दी है, मजबूरी में किताबें और यूनिफॉर्म भी खरीद ली हैं, तब इस समिति का क्या औचित्य है? अप्रैल का आखिरी सप्ताह चल रहा है, फिर गर्मी की छुट्टियाँ लग जाएंगी और जून में स्कूल दोबारा खुलेंगे। ऐसे में समिति कुछ करेगी भी तो उसका असर कितनों तक पहुँचेगा?
ऐसे में यह आदेश महज एक “औपचारिकता” भर लग रहा है – ताकि कहा जा सके कि “हमने आदेश तो दिया था!”

क्या है कलेक्टर का आदेश?
कलेक्टर नेहा मीना के निर्देश अनुसार स्कूल शिक्षा विभाग, भोपाल ने आदेश जारी किया है कि निजी स्कूल अभिभावकों पर किताबें, यूनिफॉर्म और अन्य शैक्षणिक सामग्री खरीदने के लिए जबरदस्ती दबाव न डालें।
इस आदेश के तहत जिले के सभी विकासखंडों में निरीक्षण के लिए समितियाँ गठित की गई हैं। इनमें तहसीलदार, विकासखंड शिक्षा अधिकारी और बीआरसी को शामिल किया गया है।
आदेश की मुख्य बातें:
- स्कूल किसी एक दुकान से किताबें, यूनिफॉर्म, बेल्ट, टाई आदि बिकवाने के लिए अभिभावकों पर दबाव नहीं डाल सकते।
यह सामग्री खुले बाजार में उपलब्ध होनी चाहिए। - स्कूल के सूचना बोर्ड और पोर्टल पर दुकानों की सूची स्पष्ट रूप से प्रदर्शित की जाए।
- हर स्कूल को अपनी फीस का कक्षावार विवरण एजुकेशन पोर्टल पर अपलोड करना अनिवार्य होगा।
- समिति अशासकीय विद्यालयों का निरीक्षण करेगी और यदि कहीं महँगी किताबें, गैर-ज़रूरी सामग्री या एक दुकान विशेष से जबरन खरीद की शिकायत मिली, तो कार्रवाई की जाएगी।
- जांच के बाद दोषी स्कूलों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाएगी।
लेकिन सवाल यह है…
जब सिस्टम पहले ही सेट हो चुका है — फीसें जमा हो चुकी हैं, किताबें बिक चुकी हैं, यूनिफॉर्म पहनकर बच्चे स्कूल भी पहुँच चुके हैं — तब समिति का काम कितना असरदार होगा?
क्या समिति सिर्फ खानापूर्ति करेगी, या वास्तव में किसी दोषी स्कूल पर कार्रवाई होगी?
फिलहाल तो यही लगता है – “हाथी निकल गया, पूंछ पकड़ने की तैयारी है!”
बाकी तो… “जो है, सो है ही!”