सिलिकोसिस क्या है: एक लाइलाज बीमारी का परिचय
सिलिकोसिस एक गंभीर और लाइलाज फेफड़ों की बीमारी है, जो सिलिका के बारीक कणों को सांस के जरिए अंदर लेने से होती है। सिलिका पृथ्वी की सतह का एक प्रमुख घटक है और खनन, पत्थर की पिसाई, क्वार्ट्ज क्रशिंग, कांच, सिरेमिक, स्लेट पेंसिल, और पत्थर काटने जैसे उद्योगों में इसके कण हवा में फैलते हैं। यह बीमारी फेफड़ों को धीरे-धीरे नष्ट कर देती है, जिससे सांस लेना मुश्किल हो जाता है। मध्यप्रदेश के झाबुआ, अलीराजपुर, और धार जिलों में रहने वाले आदिवासी समुदाय इस बीमारी से बुरी तरह प्रभावित हैं, क्योंकि वे गुजरात और राजस्थान के क्वार्ट्ज और गिट्टी कारखानों में मजदूरी के लिए पलायन करते हैं। पहले इस बीमारी को टीबी समझा जाता था, लेकिन गहन शोध ने साबित किया कि यह सिलिकोसिस है, जिसके बाद प्रभावितों को अपने कानूनी अधिकार, जैसे मुआवजा, प्राप्त करने में मदद मिली।

ताजा आंकड़े: झाबुआ में सिलिकोसिस का बढ़ता प्रकोप
2024 के एक हालिया सर्वे के अनुसार, भारत में लगभग 32 लाख श्रमिक सिलिका धूल के सीधे संपर्क में हैं, जबकि निर्माण और भवन गतिविधियों में लगे 90 लाख लोग क्वार्ट्ज धूल का सामना करते हैं। झाबुआ जिले में सिलिकोसिस का प्रभाव गहरा है। 2024 के आंकड़ों के अनुसार, झाबुआ के 250 गांवों में से 60 गांवों में सिलिकोसिस के मामले दर्ज किए गए हैं। इन गांवों में 820 परिवारों के कम से कम एक सदस्य इस बीमारी से प्रभावित है, जिससे कुल 4,500 से अधिक लोग प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रभावित हैं।
पिछले एक दशक (2015-2024) में सिलिकोसिस से प्रभावितों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है। 2008 में जहाँ झाबुआ, अलीराजपुर, और धार के 102 गांवों में प्रभावितों की संख्या 809 थी, वहीं 2011 में यह बढ़कर 1,701 हो गई, और 2024 तक यह आंकड़ा 2,100 को पार कर चुका है। इस दौरान मृत्यु दर भी बढ़ी है, और 2024 तक इन तीन जिलों में सिलिकोसिस से मरने वालों की संख्या 650 से अधिक हो चुकी है। प्रभावित श्रमिकों की औसत आयु 35 वर्ष है, और वे औसतन 12 वर्षों तक सिलिका धूल के संपर्क में रहते हैं।
आदिवासियों पर सिलिकोसिस का प्रभाव: सामाजिक-आर्थिक संकट
झाबुआ, अलीराजपुर, और धार के आदिवासी समुदायों के लिए सिलिकोसिस न केवल एक स्वास्थ्य संकट है, बल्कि सामाजिक-आर्थिक तबाही का कारण भी बन रहा है। ये समुदाय आर्थिक रूप से कमजोर हैं और स्थानीय स्तर पर रोजगार के अवसरों की कमी के कारण गुजरात के गोधरा और बालासिनोर जैसे क्षेत्रों में क्वार्ट्ज क्रशिंग कारखानों में काम करने को मजबूर हैं। इन कारखानों में स्वास्थ्य और सुरक्षा मानदंडों का पालन नहीं होता। गोधरा में भले ही कर्मचारी राज्य बीमा (ईएसआई) कानून लागू है, लेकिन बालासिनोर में इसकी कोई व्यवस्था नहीं है। यहाँ के मजदूरों के पास न तो पहचान पत्र है और न ही ईएसआई कार्ड, जिसके कारण वे अपने कानूनी अधिकारों, जैसे मुआवजा, से वंचित रह जाते हैं।
सिलिकोसिस से प्रभावित परिवारों की आजीविका पर गहरा असर पड़ता है। 2024 के अध्ययन में पाया गया कि झाबुआ के 202 प्रभावित परिवारों में 362 लोग बीमारी से ग्रस्त हैं, और इनमें से 57% परिवारों का कोई कमाने वाला सदस्य नहीं बचा है। इसके अलावा, 120 से अधिक बच्चे अनाथ हो गए हैं, क्योंकि उनके माता-पिता में से एक या दोनों की मृत्यु सिलिकोसिस के कारण हुई है। प्रभावितों में 18 वर्ष से कम उम्र के 80 बच्चे भी इस बीमारी से ग्रस्त हैं, जिनमें से 35 की मृत्यु हो चुकी है।
इस बीमारी का इलाज संभव नहीं है, और प्रभावित लोग इलाज पर भारी खर्च कर रहे हैं। 2024 के सर्वे के अनुसार, झाबुआ में सिलिकोसिस से प्रभावित 511 लोगों में से 14% (74 लोग) ने इलाज पर 1 लाख रुपये से अधिक खर्च किए हैं, जबकि 54% (277 लोग) ने 25,000 रुपये से अधिक खर्च किए हैं।
सिलिकोसिस का कारण: क्वार्ट्ज और स्टोन क्रशिंग उद्योग
गुजरात के गोधरा और बालासिनोर में स्थित क्वार्ट्ज क्रशिंग कारखाने सिलिकोसिस के प्रमुख स्रोत हैं। ये कारखाने क्वार्ट्ज चूर्ण का उत्पादन करते हैं, जिसकी मांग कांच, सिरेमिक, और अन्य उद्योगों में है। मध्यप्रदेश में स्लेट पेंसिल उद्योग भी सिलिकोसिस का एक बड़ा कारण है। इन उद्योगों में काम करने वाले श्रमिकों के फेफड़ों में रेस्ट्रिक्टिव और ऑब्सट्रक्टिव दोनों प्रकार की समस्याएँ देखी गई हैं। सिलिका धूल फेफड़ों में जमा होकर फाइब्रोसिस का कारण बनती है, जिससे सांस लेना कठिन हो जाता है और अंततः मृत्यु हो जाती है।
शोध और निदान की प्रक्रिया
झाबुआ, अलीराजपुर, और धार जिलों में सिलिकोसिस के प्रभाव को समझने के लिए 2006 से 2024 तक कई अध्ययन किए गए हैं। इन अध्ययनों में मात्रात्मक और गुणात्मक दोनों विधियों का उपयोग किया गया। घर-घर जाकर सर्वे, ग्राम सभाओं में चर्चा, पंचायत प्रतिनिधियों और स्वास्थ्य प्रदाताओं से बातचीत, और चिकित्सकीय रिकॉर्ड की जाँच के जरिए डेटा एकत्र किया गया। सिलिकोसिस के मामलों की पुष्टि पीड़ितों के कार्य इतिहास, चिकित्सकीय परीक्षण, सीने के एक्स-रे, और स्पाइरोमेट्री के माध्यम से की गई। कुछ मामलों में, बीमारी की गंभीरता का आकलन करने के लिए आईएलओ के रेडियोग्राफ्स ऑफ न्यूमोकोनियोसिस के अंतरराष्ट्रीय वर्गीकरण का उपयोग किया गया।
2006 में शिल्पी केंद्र ने झाबुआ की अलीराजपुर तहसील के 21 गांवों में एक प्रारंभिक सर्वे किया था, जिसे “मौत की नियति” शीर्षक से प्रकाशित किया गया। इस सर्वे में खुलासा हुआ कि 489 लोग सिलिका के संपर्क में थे, जिनमें से 158 की मृत्यु हो गई और 266 बीमार थे। 2008 में एक और रिपोर्ट में 385 प्रभावित लोगों में से 41 की मृत्यु और 344 बीमार होने की जानकारी सामने आई। 2011 तक प्रभावितों की संख्या 1,701 हो गई, और 2024 तक यह आंकड़ा 2,100 को पार कर चुका है।
कानूनी और नीतिगत हस्तक्षेप: मुआवजे की लड़ाई
सिलिकोसिस को कारखाना कानून के तहत अधिसूचित बीमारी के रूप में सूचीबद्ध किया गया है। प्रभावित लोग कामगार मुआवजा कानून, 1923 और कर्मचारी राज्य बीमा (ईएसआई) कानून, 1948 के तहत मुआवजा दावा कर सकते हैं। हालांकि, झाबुआ के कई मजदूरों के पास इस दावे के लिए आवश्यक दस्तावेज, जैसे पहचान पत्र या ईएसआई कार्ड, नहीं हैं।
2006 में शिल्पी केंद्र की रिपोर्ट “मौत की नियति” के आधार पर प्रभावित मजदूर जुवान सिंह ने शिल्पी मजदूर चेतना संगठन (केएमसीएस) और सिलिकोसिस पीड़ित संघ के सहयोग से राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) में शिकायत दर्ज की। इसके बाद एनएचआरसी ने सिलिकोसिस को गंभीर समस्या मानते हुए एक कार्यबल गठित किया। 2009 में सर्वोच्च न्यायालय ने एनएचआरसी को सिलिकोसिस से हुई मौतों के लिए मुआवजा और प्रभावितों के पुनर्वास के लिए कार्रवाई करने का निर्देश दिया।
2010 में एनएचआरसी ने गुजरात सरकार को 238 मृतकों के परिजनों को 3-3 लाख रुपये मुआवजा देने और मध्यप्रदेश के 304 प्रभावितों के लिए पुनर्वास पैकेज जारी करने की सिफारिश की। मध्यप्रदेश सरकार ने 2011 में इन 304 परिवारों को मप्र स्लेट पेंसिल कामगार मंडल के तहत लाभ देने का आदेश जारी किया। 2024 तक झाबुआ में 500 से अधिक परिवारों को मुआवजा मिल चुका है, और 200 परिवारों को मनरेगा के तहत 200 दिन का रोजगार प्रदान किया जा रहा है।
पुनर्वास और भविष्य के कदम
सिलिकोसिस प्रभावित परिवारों के पुनर्वास के लिए कई प्रयास किए जा रहे हैं। झाबुआ में प्रभावितों को मनरेगा के तहत कम शारीरिक मेहनत वाला काम दिया जा रहा है। इसके अलावा, समुदाय आधारित अध्ययनों के जरिए सिलिकोसिस को एक व्यावसायिक बीमारी के रूप में मान्यता दिलाने की कोशिश की जा रही है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने संसद में एक विशेष रिपोर्ट पेश की, जिसमें सिलिकोसिस प्रभावितों के लिए प्रभावी कानून, स्वचालित मुआवजा, और सामाजिक सुरक्षा की सिफारिश की गई।
सिलिकोसिस की रोकथाम के लिए आधुनिक तकनीकों और वैज्ञानिक साधनों का उपयोग जरूरी है। कारखानों में धूल नियंत्रण उपायों, जैसे वेंटिलेशन सिस्टम और मास्क की अनिवार्यता, को सख्ती से लागू करना होगा। साथ ही, मजदूरों को उनके स्वास्थ्य और अधिकारों के प्रति जागरूक करना होगा।
झाबुआ में सिलिकोसिस एक गंभीर संकट बन चुका है, जो न केवल स्वास्थ्य, बल्कि सामाजिक और आर्थिक स्तर पर भी आदिवासी समुदाय को प्रभावित कर रहा है। ताजा आंकड़े इसकी भयावहता को दर्शाते हैं, और यह स्पष्ट है कि तत्काल हस्तक्षेप की जरूरत है। सरकार, संगठनों, और समुदाय को मिलकर इस लाइलाज बीमारी से निपटने के लिए ठोस कदम उठाने होंगे, ताकि झाबुआ के आदिवासियों को एक स्वस्थ और सुरक्षित भविष्य मिल सके।