✍️ वीरेन्द्र सिंह राठौर
मीडिया वह शब्द है जो जनता, सरकार और प्रशासन के बीच सेतु का काम करता है। जनता को उम्मीद होती है कि मीडिया उनकी आवाज़ शासन-प्रशासन तक पहुंचाए, और शासन की अपेक्षा होती है कि मीडिया उनकी योजनाएं, घोषणाएं और विकास की बातें आम जनता तक ले जाए। इस दृष्टिकोण से मीडिया एक अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। लेकिन मौजूदा हालातों में कुछ ऐसा हो गया है कि प्रशासन और पुलिस को वही मीडिया पसंद आता है, जो सिर्फ उनकी बात सुने – सवाल न पूछे, जवाब न मांगे।

सवाल पूछे जाने से क्यों डरते हैं अधिकारी ?
पत्रकार जब सवाल करता है तो वह जनता की ओर से जिम्मेदारियों की याद दिलाता है। लेकिन आज हालात ऐसे हो चुके हैं कि प्रशासन और पुलिस को वही मीडिया पसंद आता है जो चुप रहे, बस उनकी बातों को प्रसारित करे।
– ये भी न पूछा जाए कि झाबुआ में 160 करोड़ की एमडी ड्रग्स कैसे आई?
– ये भी न पूछा जाए कि जल जीवन मिशन में करोड़ों खर्च होने के बावजूद गांवों में पानी क्यों नहीं है?
– ये भी न पूछा जाए कि नई बस स्टैंड की ज़मीन सालों से क्यों नहीं खोजी गई?
– ये भी न पूछा जाए कि खुलेआम मांस व्यवसाय मुख्यमंत्री के निर्देश के बाद भी कैसे चल रहा है?
– ये भी न पूछा जाए कि आईपीएल सट्टा पर पुलिस आंख क्यों मूंदे है?
– ये भी न पूछा जाए कि गरीब की सुनवाई थानों और जनसुनवाई में क्यों नहीं होती?
– ये भी न पूछा जाए कि सलामान लाला का फर्जी पासपोर्ट कैसे बन गया?
– ये भी न पूछा जाए कि किसान कर्जमाफी में हुई गड़बड़ी की शिकायत पर एफआईआर दर्ज करने बावजूद पुलिस जांच प्रतिवेदन को दबाकर क्यों बैठी है?
सवाल तो पूछे जाएंगे – पसंद आए या न आए, ये अलग बात है। लेकिन जवाबदेही और जिम्मेदारी तो बनती है।
पत्रकारिता अगर सिर्फ प्रशंसा तक सीमित हो जाए तो वह ‘जनसंपर्क’ रह जाती है, ‘जनसेवा’ नहीं। हमारा काम सवाल पूछना है – और पूछते रहेंगे।
झुकेंगे नहीं, डरेंगे नहीं – क्योंकि हम जनता की उम्मीद हैं
पत्रकार सवाल पूछता है, क्योंकि उसे जनता की उम्मीदों का प्रतिनिधि होना है। वह डरकर, झुककर, रुककर काम नहीं कर सकता। लेकिन हालात ऐसे बना दिए जाते हैं, मानो पत्रकार कोई अपराधी हो।
9 मार्च को भगोरिया महोत्सव के दौरान जब मुख्यमंत्री मोहन यादव झाबुआ आए, तो पत्रकार के साथ-धक्का मुक्की हुई ।
27 मार्च को फिर मुख्यमंत्री के दौरे में एक पत्रकारों के साथ गलत व्यवहार किया गया । जनसंपर्क अधिकारी जो बात कह रही थी, उसके मुताबिक पत्रकार कार्यक्रम स्थल पहुंचे तो पुलिस अधिकारी ने पीआरओ पर ही सवाल खड़े कर दिए कि पीआरओ कौन होती है । पीआरओ कौन होती है, ये सरकार से पूछा जाना चाहिए, वो बेहतर बता सकती है ।
और जब इसकी शिकायत कलेक्टर-एसपी से की गई, तो वे धमकाने की मुद्रा में आ गए।
क्या प्रशासन के मुखिया को यह नहीं पता कि जिले में क्या चल रहा है?
अगर जानकारी नहीं है तो चिंता की बात है, और अगर जानकारी होते हुए भी कार्रवाई नहीं हो रही – तो यह और भी गंभीर है।

7 अप्रैल को पत्रकारों का जवाब – “हम डरेंगे नहीं”
प्रशासन की इस कार्यशैली के विरोध में 7 अप्रैल को जिला पत्रकार संघ के बैनर तले झाबुआ के अंबेडकर पार्क में जिले भर के पत्रकार एकजुट हुए।
चिंतन किया, बात रखी, और साफ कहा – “अगर आपको किसी पत्रकार से शिकायत है, तो कानूनी प्रक्रिया अपनाइए। लेकिन डराने, धमकाने, या मीडिया को कमजोर करने की कोशिशें नाकाम रहेंगी।”
आलोचना का मतलब दुश्मनी नहीं होता
यह बात समझनी होगी कि जब कोई पत्रकार प्रशासन की आलोचना करता है, तो वह दुश्मनी नहीं निभा रहा – बल्कि आपको बेहतर करने के लिए एक रास्ता दिखा रहा है। मीडिया शासन का दुश्मन नहीं, उसकी आंख और कान होता है। जिस जगह आप नहीं पहुंच सकते, वहां से आपको सच दिखाता है। अगर आप उसमें सुधार करते हैं, तो इससे आपकी साख ही बढ़ेगी।
मीडिया को दबाने से नहीं, साथ लेकर चलने से बनेगा भरोसा
मीडिया न डरेगा, न झुकेगा। आप कुछ को तो खरीद सकते हैं, लेकिन सैकड़ों वही सवाल पूछेंगे जो जनता पूछना चाहती है।
मीडिया की आलोचना को निजी हमला मानना, सबसे बड़ी भूल है।
बेहतर होगा कि इस पुल को तोड़ा न जाए, बल्कि जनता-प्रशासन के बीच के इस भरोसे के पुल को और मजबूत किया जाए।
“बाकी तो जो है, सो है ही।”